देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की शाखा, 70 इंदिरा गांधी मार्ग, (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर के द्वारा आज जानकी फार्म बड़ोंवाला में भव्य श्री गुरू पूर्णिमा महोत्सव का दिव्य आयोजन किया गया। प्रातः 09ः00 बजे मंच पर आसीन वेद पाठियों द्वारा एक घण्टा पवित्र वेद मंत्रों का गायन करते हुए वातावरण को पावन कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया।
श्री गुरू पूर्णिमा जिसे व्यास पूजा भी कहा जाता है, यह सैकड़ों वर्षों से पूर्ण सद्गुरू के शिष्यों द्वारा आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसका शुभारम्भ महर्षि वेद व्यास जी, जिन्होंने वैदिक श्रृचाओं का संकलन कर इन्हें चार वेदों के रूप में वर्गीकृत किया था, इनके अवतरण दिवस के रूप में मनाया गया था। 18 पुराणो, 18 उप-पुराणों, उपनिषदों, ब्रह्म्सूत्र, महाभारत आदि अतुलनीय गं्रथों को लेखनीबद्ध करने का श्रेय भी इन्ही वेद व्यास जी को जाता है। संस्थान यह कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष विगत 27 वर्षों से भव्यतापूर्वक मनाता आ रहा है। कार्यक्रम में संस्थान की देहरादून आश्रम में सेवारत साध्वी विदुषियों के साथ-साथ दिल्ली से पधारीं सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी विदुषी तपेश्वरी भारती जी ने गुरू की महिमा पर अपने विचार सत्संग-प्रवचनों के माध्यम से प्रस्तुत किए।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में सद्गुरू की महामंगल आरती की गई जिसमें असंख्य साधकों-सेवादारों तथा स्थानीय लोगों ने शिरकत कर पुण्य-लाभ अर्जित किया। इसके पश्चात् मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों ने अनेक भावपूर्ण भजनों का गायन कर उपस्थित भक्तजनों को मंत्रमुग्ध कर दिया। साध्वी विदुषी जाह्न्वी भारती जी तथा साध्वी सुभाषा भारती जी ने संयुक्त रूप से भजनों की सटीक मिमांसा करते हुए श्रद्धालुआंे का ज्ञानवर्धन किया। उन्होंने बताया कि शास्त्र कहता है यदि मनुष्य के पास हिमालय पर्वत जितना धन का ढे़र हो, मान प्रतिष्ठा इंद्र के समान हो, बलिष्ठता असीम हो, प्रेम करने वाला परिवार हो, संसार की प्रत्येक नेमतें पास हों लेकिन यदि सद्गुरू के श्रीचरणों में प्रीति नहीं है तो यह सब कुछ व्यर्थ है, व्यर्थ है, व्यर्थ है। गुरू संसार की यह सर्वोच्च सत्ता हैं जो जीव के हृदय में परमात्मा को प्रकट कर देने की अद्वितीय क्षमता रखते हैं।
कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से दिल्ली से पधारीं साध्वी विदुषी तपेश्वरी भारती जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि एक शिष्य के लिए उसके गुरूदेव प्राणों की तरह हुआ करते हैं। गुरू का तो शाब्दिक अर्थ ही है जो अंधकार से प्रकाश की ओर लेकर जाए। पूर्ण गुरू शिष्य के जीवन को प्रकाशमय कर दिया करते हैं। साध्वी जी ने भक्तों को भक्ति के अनमोल सूत्र देते हुए बताया कि एक साधक यदि इन्हें अपने जीवन में लागू करे तो अति शीध्र अपने लक्ष्य को हासिल कर सकता है। साधना, सेवा तथा सद्गुरू से प्रेम की रीत निभाने के संबंध में उन्होंने सटीक जानकारियां प्रदान कीं। साधना के लिए उन्होंने बताया कि साधना मनुष्य के चंचल चित्त का निग्रह कर मन को परमात्मा में स्थिर करने का अमोघ साधन है। सेवा के संबंध में उन्होंने कहा कि सेवा या तो संसार की कर लो या फिर करतार (ईश्वर) की करो। संसार की सेवा भोगों में उलझाएगी जबकि करतार की सेवा साधक का परम कल्याण करते हुए पार लगाएगी। सद्गुरू से एकनिष्ठ तथा निष्काम-निस्वार्थ प्रेम ही उनकी प्रसन्नता का आधार बन पाता है। साध्वी जी ने अनेकों उदाहरण देकर भक्तिपथ पर चलने के लिए समझाया।
समापन से पूर्व भी अनेक सुमधुर भजनों का गायन किया गया जिस पर संगत भावविभोर होकर झूम उठी, नाच उठी। कार्यक्रम के समापन पर विशाल भण्डारे का आयोजन किया गया। भक्त-श्रद्धालुओं ने भण्डारे का प्रसाद ग्रहण कर अपने जीवन का कल्याण किया।